हींग लगे ना फिटकरी..
भारतीय प्रायद्वीप में शिक्षा संस्थानों के इतिहास की जब बात आती है तो सबसे पहले तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा संस्थान का जिक्र आता है। थोड़ा विस्तार से अगर जानना चाहेंगे तो नालंदा के साथ-साथ विक्रमशिला. तिलाधक, ओदंतपुरी और कुछ अन्य विश्व प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानो का जिक्र भी आपको महान मगध साम्राज्य के इतिहास में मिल जाएगा । इनमें से नालंदा विश्वविद्यालय के विभिन्न पाठ्यक्रमों के बारे में जब जानना चाहेंगे तो वास्तु और मूर्तिशिल्प का जिक्र भी मिल जाएगा। साथ ही इतिहास के पन्नों में ऐसे अनेकों प्रमाण आपको मिलेंगे कि कैसे वास्तु, मूर्तिशिल्प और चित्रकला की विकास यात्रा सदियों तक इस भूमि पर जारी रही, लगभग 12 वीं सदी तक। उसके बाद के युग को अंधकार काल मानते हुए जब आगे जाएंगे तो ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर आते आते पटना कलम या कंपनी शैली का जिक्र मय सबूत आपको मिल जाएगा। उसके बाद की कला शिक्षा के नाम पर आपके पास है पटना स्थित कला एवं शिल्प
महाविद्यालय, जहां छात्र आज भी मास्टर डिग्री की पढाई शुरू होने की आस संजोये बैठे हैं। अब जब यह आस यहां पूरी नहीं हो रही है तो ऐसे में देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयों के चक्कर उन्हें लगाने पड़ रहे हैं। जाहिर है कि हमारी अपनी राज्य सरकारों की प्राथमिकता में यह सब कभी नहीं रहा, इसलिए यह आज भी संभव नहीं हो पा रहा है। फिर भी यदा कदा यहां एमएफए यानी मास्टर डिग्री की पढ़ाई शुरू किए जाने की चर्चा जब तब हो जाती है. और हम जैसे कूपमंडूक न चाहते हुए भी इस पर भरोसा कर बैठतेे हैं।
लेकिन अब कला की उच्चतर शिक्षा के लिए बिहारी छात्रों को कहीं भटकने की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। आप अपने मुहल्ले की गली से लेकर अपनी कॉलोनी का एक चक्कर भर लगा लें, तो आपको इसका समाधान घर बैठे मिल जाएगा। किसी शांंति निकेतन, जामिया, खैरागढ़ या बड़ौदा जैसे नामचीन संस्थानों तक जाने और परेशान होने की जरूरत ही नहीं होगी। अपने मुहल्ले के इस संस्थान में जाकर आपको बस इतना ही करना है कि उसके संचालक को अपनी जरूरत बता दें। कुछ अंटी ढीली होगी और आप घर बैठे बीएफए व एमएफए से भूषित हो जाएंगे। आप कहेंगे कि इसके बाद लेकिन क्या मुझे कलाकार के तौर पर मान्यता मिल जाएगी, तो बस इतना कह सकता हूं कि आपको कलाकार कोई माने या न माने बिहार सरकार आपको नौकरी पाने के लायक तो मान ही लेगी। क्योंकि आपके पास होगा चंडीगढ़ स्थित प्रचीन कला केन्द्र द्वारा प्रदत्त वह डिग्री जिसे बीपीएससी यानी बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन भी मान्यता दे चुकी है। इस मामले को आसान भाषा में समझना चाहें तो यह सिर्फ इतना भर है कि आरएमपी डॉक्टर को एमबीबीएस के समकक्ष मान लिया गया हो।अगर आपको इसमें कुछ गलत नहीं लग रहा हो तो तैयार रहें कि आगे चलकर घर का वैद्य पुस्तक पढ़कर भी कोई एमबीबीस कर ही लेगा ।वैसे अगर आप कलाकार हैं और दुर्भाग्य से किसी कला महाविद्यालय में चार से पांच सालों की पढाई के लिए आपने अपने समय के साथ-साथ माता-पिता की गाढ़ी कमाई भी लुटा रखी है तो शायद आपको एकबारगी विश्वास ना हो । क्योंकि सामान्य स्थिति में भी आपको सिर्फ नामांकन टेस्ट पास करने में जितना पसीना बहाना पड़ा होगा, उससे कम में तो आप यहां से स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर लेंगे। एक कलाकार के नाते यह सब आपको जितना भी चौंकाए लेकिन जान लीजिए कि हमारी सरकारों के लिए तो अंतत: सब धन बाइस पसेरी ही है।
वैसे जब आप इस तथ्य के विस्तार में जाएंगे तो आप भी आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि हमारे सिस्टम में अगले दरवाजे से घुसने में जितनी भी जद्दोजहद हो पिछले दरवाजे से शानदार इंट्री का विकल्प हमेशा मौजूद रहता है। दरअसल इसको समझने के लिए आपको एक बार फिर इतिहास में जाना पड़ेगा। जब ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े एक ब्रिाटिश व्यवसायी की पहल पर सन 1850 में इस देश के तत्कालीन मद्रास शहर में इंडस्ट्रियल डिजाइन का एक संस्थान खुलता है जिसे आगे चलकर मद्रास कॉलेज ऑफ आर्ट के नाम से जाना जाता है। इसके बाद बंबई में जे. जे. कॉलेज ऑफ आर्ट, कोलकाता में गर्वमेंट कॉलेज ऑफ आर्ट, लाहौर में मेया स्कूल ऑफ आर्ट जैसे संस्थान अस्तित्व में आते चले गए। इसके बाद इसी कड़ी में लखनऊ कला महाविद्यालय भी अस्तित्व में आया और आजादी के बाद अन्य कला संस्थान व संकाय सामने आए। लेकिन किसी कारण से हमारे यहां ठीक ऐसा ही कुछ संगीत के क्षेत्र में नहीं हो पाया।यानी संगीत की विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा का कोई खास मॉडल विकसित नहीं हो पाया, जिसका एक बड़ा कारण तो यही था कि हमारे यहां संगीत में घरानों और गुरू शिष्य परंपरा की जड़ें ज्यादा गहरी थी। बहरहाल ऐसे में प्रयाग संगीत समिति और प्राचीन कला केंद्र जैसे संस्थान सामने आए, जिनके द्वारा दी जाने वाली संगीत शिक्षा को मान्यता मिल गई। आप अगर इस प्राचीन कला केंद्र के वेबसाइट पर जाएंगे तो वहां दी गई अधिकांश जानकारी संगीत से जुड़े पाठ¬क्रमों की ही आपको मिलेगी। इनके रिकोग्निसन यानी मान्यता वाले पेज पर भी सारी चर्चा सिर्फ संगीत शिक्षा की ही आपको मिलेगी, जिससे यह समझ में तो आता है कि संगीत के क्षेत्र में इनके द्वारा प्रदत्त सर्टिफिकेट विभिन्न संस्थानों से मान्य हैं। किन्तु यहां से आपको ललित कला विषयक ऐसी कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। ऐसे में यह तो पड़ताल का विषय है कि ऐसा कब और कैसे होता चला गया, और इन सबके बाद सबसे बड़ा सवाल की जब प्राचीन कला केंद्र के इस मॉडल को अपनाकर हम देश भर में कला शिक्षा दे सकते हैं तो फिर आखिर इतने कला महाविद्यालयों और कला संकायों की आवश्यकता क्या है? वैसे भी हमारी सरकारों की पहली प्राथमिकता तो अब शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में कम से कम लागत में ज्यादा परिणाम पाने की है। तो ऐसे में लाख टके की सलाह तो यही बनती है कि सारे कला संकाय या महाविद्यालयों को बंद कर हर गली मुहल्ले में प्राचीन कला केंद्र की देखरेख में कला संस्थान शुरू कर दिए जाएं, ताकि हींग लगे ना फिटकरी वाली बात भी चरितार्थ हो ही जाए…. अंत में तो बस जय बिहार…जय जय बिहार…। लेकिन इसके बाद जब भी ऐसा हो कि विश्व के दस शीर्ष शिक्षा संस्थान क्या शीर्ष सौ में भी जब आपका यानी हमारा यह प्यारा देश भारत कहीं नजर ना आए तो एक बार सोचिएगा जरूर कि आखिर दिनोंदिन आपके रसातल में चले जाने की वजह क्या है?
सुमन सिंह