MAHAMARI SE UTHAL PUTHAL

4- इस महामारी के भयानक दौर में रचनाकार क्या और कैसा रच रहे हैं ? खासकर चित्रकारों ने कुछ 

ऐसा नया किया है जिसके बारे में कोई बात हो सकती है? इस परिप्रेक्ष्य में कि 1943 के अकाल की 

आपदा पर चित्रकार जैनुल आबेदीन ने ऐतिहासिक चित्र बनाए थे जिनकी काफी चर्चा रही है।

महामारी के इस दौर में, चित्रकारों के लिए रचने से पहले महामारी से प्रभावित जनता के दर्द को अनुभव करने की जरूरत है। हम प्रायः किसी विषय को सतही ढंग से समझ कर अपनी रचनाओं में उन्हें कृत्रिम तरीकों से पेश करने की कोशिश करते हैं। किसी भी चित्रकार के लिए , जिसके पास कौशल है ; ऐसा करना कोई कठिन काम नहीं है। उदाहरण के लिए हम पिछले एक साल तक चली महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती पर आयोजित चित्रकला शिविरों में बने हज़ारों चित्रों को देख सकते हैं जहाँ गाँधी जी की लाठी ,चप्पल , घड़ी और सफ़ेद कबूतर आदि के चित्रणों के जरिये गाँधी जी को याद करने की रस्म अदायगी हुई। ऐसे ही कृत्रिम और सारहीन ढंग से फौरी तौर पर मास्क और कदम्ब के फल के आकार के कोरोना वाइरस को बना कर अपने वर्त्तमान के प्रति जागरूक प्रमाणित करने की कोशिशें हास्यास्पद हैं। 

1943 के अकाल ने ज़ैनुल आबेदीन और चित्तप्रसाद दोनों को ही अपने चित्रों में अपने समय को दर्ज़ करने के लिए प्रेरित किया था और इन दोनों कलाकारों ने महा अकाल पर बहुत सार्थक चित्र रचे। चित्तप्रसाद के पीछे एक समूचा राजनैतिक संगठन था जिसका मानना था कि गुलाम हिन्दुस्तान को एकजुट करने के लिए यह जरूरी है कि हर हिंदुस्तानी बंगाल के महाअकाल के दर्द को समझ सके। संगठन के शीर्षस्थ नेता पी सी जोशी का चित्तप्रसाद के साथ सीधा संवाद था, अतः चित्तप्रसाद के लिए चित्रों के दस्तावेज़ीकरण के महत्व को समझना कठिन नहीं हुआ। । उस दौर में पार्टी की कई भाषाओं में पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं और इन पत्रिकाओं में छपे समाचारों और लेखों के साथ चित्तप्रसाद के चित्रों को जनता तक पहुँचने का अवसर मिला। चित्र रचना के पीछे जब किसी व्यक्ति या संगठन के राजनैतिक उद्देश्यों और उसके व्यक्तिगत मानवीय सरोकार के बीच का अंतर नहीं रह जाता है, तभी ऐसे चित्र बनते हैं । चित्तप्रसाद के चित्रों को भारत में पत्रकारिता के एक नए अध्याय के रूप में भी देखा जा सकता है। 

दूसरी ओर ज़ैनुल आबेदीन ने भूख से मरते हुए लोगों से अपने को अलग करके चित्र नहीं बनाया था। उनके चित्र , एक चित्रकार के अपने प्रियजनों की मृत्यु पर विलाप जैसे थे। कलकत्ते जैसे महानगर की सड़कों पर भूख-प्यास से मरती ग्रामीण असहाय जनता के चित्रों को बनाते हुए उन्होंने अपने चित्रों में अकाल पीड़ितों के साथ चित्र की पृष्ठभूमि के रूप में कुछ भी नगरीय चित्रित नहीं किया था। 

यहाँ सबसे गौरतलब बात यह है कि आज सात दशकों बाद, वर्त्तमान भारतीय पीढ़ी या दुनियाभर के कला प्रेमियों के लिए इन चित्रों ने अपने रचे जाने के सन्दर्भ से मुक्त होकर एक व्यापक अर्थ अख्तियार कर लिया है। ये चित्र, किसी विशेष काल या स्थान की त्रासदी का चित्रण न रह कर , मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के खिलाफ एक ऐसे शाश्वत चित्र बन गए हैं, जिसमें हम कोरोना काल में महानगरों में बेघर श्रमिकों के अपने अपने गाँवों की तरफ पैदल चल देने की मजबूरी और दर्द को स्पष्ट समझ पाते हैं। चित्रों का सही मायने में कालजयी होना शायद इसे ही कहते हैं।

5- अतीत में इस तरह के संकटों और वर्तमान दौर में चित्रकला में बाजार, कलादीर्घाओं और कला अकादमियों की भूमिका के बारे में भी कुछ बताएंगे। यह भी कि आप इस सबको किस रूप में देखना चाहते हैं?

सच तो यह है कि  हमारे यहाँ आज़ादी के बाद सरकारी और गैर सरकारी कलादीर्घाएँ और कला अकादमियाँ अन्ततः कला बाज़ार को ही समर्पित रहीं हैं। इनमें लोगों में कला के प्रति जागरूकता पैदा करने हेतु न तो कोई दृष्टि थी, न ही कोई उद्देश्य । कला अकादमियों की स्थापना के बाद से ही सरकारों ने संस्कृति और कला मंत्रालयों तथा खाद और कोयला मंत्रालयों के प्रबंधन को भिन्न नहीं समझा और कुछ प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के माध्यम से इसे निहायत कृत्रिम तरीके से अंजाम देने की कोशिश की गयी ।  भारतीय चित्रकला और पाश्चात्य चित्र कला में व्यापक अन्तर है। भारतीय चित्रकला में कथा चित्रणों का महत्त्व सर्वोपरि रहा है, वहीं पाश्चात्य कला चित्र के कला गुणों जैसे वर्ण , प्रकाश, संरचना आदि के बारे में ज्यादा सजग  रही है। ऐसे में भारतीय कलाकारों के साथ साथ आम जनता की कलाचेतना के विकास के लिए उन्हें पाश्चात्य चित्रकला से परिचित कराने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए था, जिससे कि भारतीय कला में एक स्वस्थ संश्लेषण संभव हो सकता। पर ऐसा नहीं हो सका और हमने संग्रहालय की बजाय मंदिरों और दिवंगत नेताओं की मूर्तियों को बनाने में करोड़ों खर्च कर दिए। बच्चों को चित्रकला और चित्रों की इस विशाल दुनिया से परिचित कराने के लिए हमारे पास आज भी कोई जरिया नहीं है, लिहाज़ा हम कक्षा एक से ही बच्चों को काल्पनिक सीनरी (दृश्य-चित्र), साड़ी का किनारा या सेब बनाना ‘सिखाते’ हैं । इस दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के लिए नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ साथ सरकारों द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित वे कलाकार भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने चित्रकला को जनता तक पहुँचाने के लिए कभी कोई सार्थक प्रयास नहीं किये ।

6- इस कोरोना काल में आप फेसबुक पर नियमित रूप से चित्त प्रसाद के चित्र साझा कर रहे हैं। चित्त प्रसाद के महत्व और प्रासंगिकता के बारे में कुछ बताएंगे।

चित्तप्रसाद (1915-1978), मात्र एक जनपक्षधर चित्रकार का नाम ही नहीं है बल्कि एक आंदोलन का नाम भी है जो कला में छद्म प्रगतिशील , मौकापरस्ती और प्रायोजित सट्टेबाज़ी या फिक्सिंग के ख़िलाफ़ खड़े होने का साहस रखता है। चित्तप्रसाद , ज़ैनुल आबेदिन , कमरुल हसन, सोमनाथ होर आदि तमाम चित्रकारों ने अकाल , विभाजन और विस्थापन जैसे विषयों पर चित्र आम-जन के पक्ष में खड़े होकर रचे। किन्तु ऐसे  कलाकारों को इतिहास से मिटा कर जनता पर यकीन न रखने वाले ,किन्तु ऐसे  कलाकारों को इतिहास से मिटा कर जनता पर यकीन न रखने वाले , संदिग्ध इरादों वाले विदेशी एजेंसियों के वज़ीफ़ों से विदेश जाकर कला में भारतीयता खोजने वाले चित्रकारों को प्रगतिशील चित्रकार  संघ ( पी ए जी ) जैसे ‘ब्राण्ड’ के साथ जोड़ा गया । इस साज़िश में केवल गैर सरकारी गैलरियाँ और नीलाम घर ही शामिल नहीं थे ; नेताओं और सरकारी अधिकारियों का भी योगदान था। पर इसके ठीक विपरीत , वामपंथी लेखक संगठनों और  प्रगतिशील कलाकारों ने  सरकारी या गैर सरकारी मदद के बगैर चित्तप्रसाद जैसे चित्रकारों को जनता तक पहुँचाने का काम किया। आज आप देख सकते हैं कि जनता के बीच पी ए जी ब्रांड के चित्रकारों से कहीं ज्यादा चित्तप्रसाद, ज़ैनुल आबेदिन जैसे चित्रकार लोकप्रिय हैं । फेसबुक में इनके चित्रों को सराहने वाली पीढ़ी ही आने वाले दिनों में बाज़ार की ऐसी साजिशों को पूरी तरह से ध्वस्त करेगी , इसमें कोई संदेह नहीं है।

7- एक सवाल अक्सर किया जाता है कि सिनेमा और नाटक आदि की तरह चित्रकला आम आदमी के उतने करीब नहीं जा पाती। इसके पीछे क्या कारण रहे हैं और इससे पार पाने के लिए चित्रकार कुछ करने के बारे में सोचते हैं अथवा नहीं।

यह सच है कि चित्रकला हिन्दुस्तान में आम जनता से पूरी तरह से कट गयी है, किन्तु यह भी सच है कि ऐसी स्थिति पिछले सत्तर सालों में ही बनी है। दरअसल आज़ाद हिन्दुस्तान में चित्रकला को लेकर आज तक नीति नहीं बन सकी। सदियों से जनता का चित्रों से नाता मात्र धार्मिक कथाओं पर आधारित ‘चित्रणों’ के माध्यम से ही बना रहा। हमने ‘चित्रण’ (इलस्ट्रेशन) और चित्र (पेन्टिंग) में फर्क करना नहीं सीखा। भारत में चित्र कला का उपयोग मुख्यतः धर्म की काल्पनिक कथाओं और शासकों के शौर्य की मिथ्या कथाओं को फैलाने के लिए किया जाता रहा है जिसके चलते चित्रकला मंदिरों और महलों की चहारदीवारी के अंदर कैद ही रह गयी। मंदिरों में पूजित देवी देवताओं की असंख्य मूर्तियाँ अपने स्वरूप में एक कलाकृति होने का भ्रम तो पैदा करती हैं, किन्तु वास्तव में वे तभी कलाकृति बन पाती हैं जब मंदिरों से हटा कर उन्हें संग्रहालयों में स्थानान्तरित किया जाए। भारतीय जनता ने कथाओं से अलग कर चित्र की शक्ति और सौंदर्य को नहीं पहचाना। भारतीय चित्रकारों द्वारा बनाये गए अनेक ऐसे चित्र हैं, जिनकी कीमत करोड़ों में है और उनके ऊपर कलाविदों द्वारा मोटे मोटे ग्रन्थ भी लिखे जा चुके हैं, बावजूद इसके हमारे पास एक भी मास्टरपीस नहीं है। हमारे पास एक भी ऐसा कलाकार नहीं है जिसका लोग अनुकरण या अनुसरण करना चाहें। अधिकांश आधुनिक कलाकारों का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रहा है और चूँकि आम जनता द्वारा किसी भी हालत  में इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती थी, इसलिए उन्होंने स्वयं ही अपने को जनता से काट लिया। कुछ कलाकार जिन्होंने ऐसा नहीं किया या जो ऐसा न कर सके, वे जनता से कट जाने की शिकायत करते रहे। मुझे नहीं लगता कि आम भारतीय जनता के लिए चित्रकला का कोई महत्व शेष है । जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, चित्रकला अब केवल संग्राहकों और निवेशकों के लिए उन्हीं की रूचि के मुताबिक तैयार किया गया विशिष्ट (एक्सक्लूसिव) पण्य या माल है , जिसका जनता से कोई लेना देना नहीं है। कला और संस्कृति के विकास के लिए निर्मित सरकारी मंत्रालयों और ललित कला अकादमियों के लिए इस सच को नकारने में ही उनका अस्तित्त्व सुरक्षित है और इसीलिए वे अब इवेंट मैनेजरों की भूमिका में आ गए हैं। कुम्भ मेले में कलाकार शिविर , अयोध्या के सरयूतट पर कलाकारों का जमावड़ा , इण्डिया गेट पर एक सौ/पाँच सौ या हज़ार चित्रकारों द्वारा सामूहिक चित्र बनाना , रामकथा पर अन्तर्राष्ट्रीय सेमीनार , चित्रकला में योग की महिमा , गाँधी की 150वीं जयंती पर एक सौ पचास कलाकारों द्वारा 1.5 किलोमीटर लम्बा चित्र बनाने जैसी सैकड़ों ‘रचनात्मक’ गतिविधियाँ और योजनाएँ हैं, जिसे करने के लिए इतने बड़े देश में संसाधनों की कमी कभी नहीं होती। 

इस स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए चित्रकारों को सार्थक विकल्प के बारे में सोचना होगा। मुझे विश्वास है युवा पीढ़ी ऐसा जरूर कर सकेगी क्योंकि कला के भविष्य और कलाकारों के अस्तित्त्व के लिए ऐसा करना जरूरी है। 

8- एक अंतिम सवाल कि कोरोना काल के बाद के समाज की संभावना बतौर चित्रकार किस रूप में कर सकते हैं?

भविष्य के बारे में अभी कुछ कहना शायद थोड़ी जल्दबाज़ी होगी, पर लॉक डाउन ने समूचे मध्य वर्ग को एक महीने में ही बेहद आत्म-केंद्रित बना दिया है। मनुष्य केवल अपने भले के बारे में सोच रहा है। वह बिना समझे ताली बजा रहा है , मोमबत्ती जला रहा है और एक खौफजदा प्राणी की भाँति घर में राशन और सैनिटाइज़र इकठ्ठा कर रहा है। वह मनोरंजन के नाम पर टेलीविज़न पर धर्मकथाओं की ओर रुख कर चुका है और पहले से ज्यादा अवैज्ञानिक और नियतिवादी हो रहा है। गोमूत्र पर आस्था का यह एक नया दौर है , जिस पर वैज्ञानिक ठीक उसी प्रकार खामोश हैं जैसे गणेश के सर को प्लास्टिक सर्जरी से शरीर से जोड़े जाने के वक्तव्य पर चुप थे। इसलिए कोरोना के बाद जो प्रभाव समाज पर पड़ेगा उसका जिम्मेदार केवल कोरोना ही नहीं होगा बल्कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान नफरत, असहिष्णुता और अवैज्ञानिकता के शरीर पर लॉक डाउन के एकांतवास से उपजे स्वार्थ का लबादा होगा ।

मुझे लगता है कि उत्तर कोरोना  काल में हमारे समाज में तार्किकता और उदारता घटेगी तथा समाज धर्म ,जाति,भाषा  प्रान्त और विचार के आधार पर व्यापक रूप से विखंडित होगा जिसकी शुरुआत हालाँकि कोरोना के आने के पहले ही हो चुकी है।

अशोक भौमिक

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