व्यथा

हे सखी साथ छोड़ जा रही
मैं फिर भई सन्यासी अब के
आजीवन को सन्यासी

पलकें निसप्राण भई
राह दिखे अब धुंधली सी
सपने सारे टूट गए
अब आस नहीं उनके आवन की
हे सखी ..
वह छोड़ गये यूं कह हर बार ,
आएगें लौट फिर एक बार….
का से कहूं व्यथा 
हे सखी मैं फिर भई सन्यासी
अब के आजीवन को सन्यासी

कित जाऊं कित अपनी व्यथा किसको सुनाऊं
नीरजल मछली सी तड़प रही हूं
अंतह अग्नि में झुलस रही हूं
इस अग्नि को कित तिर नीर बुझाऊं
कासे नैया पार लगाऊं 

हे सखी..मैं फिर भई सन्यासी
अब के आजीवन को सन्यासी

कड़ियां सारी बिखर गयीं
जीर्ण हुए हैं धागे 
मोतीयां सारी बिखर गयीं
अब चाह नहीं कुछ पाने की
अवसाद भरा अब जीवन में
समय निर्वाण गति पाने की

हे सखी
हे सखी मैं फिर भई सन्यासी
अब केआजीवन को सन्यासी
                                        प्रियंका सिंहा

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