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व्यथा

हे सखी साथ छोड़ जा रहीमैं फिर भई सन्यासी अब केआजीवन को सन्यासी पलकें निसप्राण भईराह दिखे अब धुंधली सीसपने सारे टूट गएअब आस नहीं

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श्रृंगार

       श्रृंगार         *******          श्रृंगार किये नवलखा भी पहनामेंहदी रचा ,चुड़ियाँ भर के हाथों में ,माँगटिका, बिंदी माथे पे सजाई           आईने में झाँका जो उसमे फिर भी खालीपन

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कालजयी उपन्यास ‘ त्यागपत्र ‘ के आवरण पर मेरा चित्र

महान कला से मिलना संयोग नहीं होता,आपको पात्र बनना पड़ता है, वह भी खाली। सौभाग्य की बात है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रेमचन्द के

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